1)साँप टेढी चाल को नहीं छोड़ता और हंस भूल कर भी टेढी़ चाल नहीं चलता।जीव का स्वभाव अपरिवर्तनीय होता है।शाश्वत होता है।
2)मणि, मंत्र,और औषधि आदि जड़ रूप होते हुए भी विष और रोग आदि की पीड़ा को दूर करते हैं।उसी प्रकार जड़ प्रतिमा का पूजन पापों का नाश करनेवाला होता है।
3)जिस प्रकार पति के बिना स्त्री का श्रृंगार बेकार होता है उसी प्रकार वैराग्य, ज्ञान औरसंयम के बिना श्रमण भी बेकार होते हैं।
4)जैसे साँप केचुल को छोड़ देता है मगर अपना विष नहीं छोड़ता इसी प्रकार साधु कपडे तो उतार दे परन्तु क्रोध, मान,माया, लोभ नहीं छोडे तो साधु बनने से क्या फायदा?
5)पति भक्ति बिना सती संभव नहीं, गुरु भक्ति बिना शिष्य नहीं, और स्वामी भक्ति बिना नौकर नहीं हो सकता।
6)केवल भेष बदलने से कुछ नहीं होगा आगे का रास्ता साफ करना होगा वरना इसी संसार चक्र में भटकते रहोगे।
7)विपत्ति पड़ने पर घबडाकर मस्तिष्क को ओर परेशानी में नहीं डालना बल्कि भगवान का नाम समता से जपना चाहिए।
8)जैसे आकाश में छाये बादल हवा का एक झोंका उडा़ ले जाता है और सर्वत्र सूर्य का प्रकाश फैल जाता है उसी प्रकार अज्ञान और मोह रूपी बादल से आच्छादित आत्म स्वरूप को प्रकाशित करने के लिए सम्यग्दर्शन रूपी हवा के झोंके की आवश्यकता है।
9)जो मनुष्य न दान करता है न धर्म ध्यान करता है,न भक्ष्य अभक्ष्य का विचार है और न पूज्यों के वचन का पालन करता है।मात्र लोभ कषाय के कारण संग्रह करता है वह दीर्घ संसारी है।
10)सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि में इतना ही अन्तर है कि मिथ्यादृष्टि जहाँ भी जायेगा कलह मचायेगा।धर्म ध्यान नहीं करने देगा।परन्तु सम्यग्दृष्टि जहाँ जायेगा कलह को मिटाकर धार्मिक वातावरण फैलायेगा।
11)ज्ञानभावना से तप,संयम,और वैराग्य की प्राप्ति होती है।क्रियाहीन ज्ञान और ज्ञान हीन क्रिया दोनों ही निरर्थक होते हैं।
12)जैसे घर में प्रवेश करने पर मन में ममताऔर परिग्रह के विचार आते हैं वैसे ही जिनालय में प्रवेश करने पर मन में समता और संयम के विचार जगने लगते हैं।